क्या शिक्षा भी भाग्य भरोसे हो चली ….?
बिन पैसे के सरकारी विद्यालयों में दम घोंटते वातावरण को मैने अपनी आँखो से अब देखा है। जहाँ उड़ती माटी हर दिन मुझे सर्दी – खाँसी करती है। पर उसी उड़ती माटी को अपने कोमल – कोमल हाथों से साफ करते भारत के भविष्य को मैने देखा है।
सत्कर्मों के नाम पर बहुत सी बिल्डिंगों में मान्यता प्राप्त सरकारी स्कूलों की आत्मा बेजान कर रही उस पीढ़ी को, जो विद्याहीन अंधकार में खो जाने वाली है। काश ! इतने विद्यालय न खोलता मेरे भाग्य विधाता, पर जिसे जन्म दिया उसे सँवारकर जीना ही सिखा देता।
क्या दोष उन पालकों का है जो नहीं थमा सकते भारत के कोमल भविष्य को प्रतिभाशाली अध्यापकों के हाथों में जिनकी मोटी फीस से उसका साल भर का राशन आता है? इसलिये थमा बैठते हैं मिड -डे मील की खातिर उन संकुलों को जो अध्यापक की पूर्ति ही नहीं कर पाता, अब बालक आकर कुछ तो करता, तो करने लगा कोमल हाथों से कढ़ाही की कालिमा साफ|
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या दोष है उन अध्यापकों का जो कर्तव्यनिष्ठ होकर भी कमजोर हैं अपने कर्तव्य निर्वाह की योग्यता में? या फिर हमारे शासकों का जिन्हें बस-रेलवे-हवायान तो स्मार्ट दिखता है, पर पाठशाला की जर्जर होती छतें भारत का त्यागा हुआ इलाका लगती हैं?
पर मुझे तो लगता है यह दोष है आपका जो इंजीनियर-डॉक्टर बनने में, कहलाने में गर्व करते हैं, पर एक बालक का शिक्षक कहलाने वाले से सिर ऊँचा कर पूछ ही लेते हैं कि भैया! कौन सी ग्रेड के हो। शायद भूल गये तुम्हारे पाठशाला की प्रथम पढ़ाई बिना ग्रेड वालों ने ही कराई थी।
भाई तुम्हारी बुद्धि प्रखर है, तो क्यों न इन गाँव-गली मे पलते बालकों को पालने में लगाओ। आओ ! पर मिलकर नहीं। हाँ! मैं कहता हूँ मिलना मत। नहीं तो भ्रष्टाचार आयेगा। नीतियाँ नहीं ,चुनावी रैलियाँ आयेंगी या हक के लिए दफ्तरों में लाइनें लग जाएंगी। आना है तो व्यक्तिगत आओ!अपने हाथों में दो पेन- पुस्तक साथ ही दो अक्षर ज्ञान के साथ। एक-एक विद्यालय गोद ले लो। आओ! और आकर भारत का भाग्य सँभालोे।
शुभम् जैन, सिद्धायतन
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